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…..शोर यूं ही न परिंदो ने मचाया होगा , कोई जंगल की तरफ शहर से आया होगा।
प्रसिद्ध गीतकार कैफी आजमी की यह रचना आज के हालात में बिल्कुल फिट बैठती है। चाहे भूख से बिलख्ते गरीब की बात हो जो हालातों से बेबस होकर अपराध को अपनाता है या फिर 21वी सदीं के इंडिया की जो अपना एक दूसरा रूप भी छोड़ जाता है गरीब भारत का। जिसकी हकीकत 37 करोड़ की गरीब आबादी, जिनकी बेबस समस्याएं, विद्रोही नक्सली समूह हो या फिर कुपोषण के कंकाल से मरने की लाचारी। कौन फिक्र करता है मित्रों ? फिक्र होती तो इसी आजादी के 6 दशकों बाद ये इंडिया और गरीब भारत की खाई ऐसी क्यूं होती ? राजनीति की बिसातों ने इन लाचारों की बेबसी से सुनहरे महल बना लिए लेकिन कम्बख्त गरीबी दूर न हुई। और जब अधिकारों की लड़ाई का दौर शुरू हुआ तो मानवाधिकार की बाते सामने आनी लगी। 6 दशकों में उनकी मानवीय संवेदनाओं को किसनें समझा ? अब समाधान ने एक ऐसा रूप अपना लिया है जो किसी कानून को नहीं मानता। जो किसी संवेदना को नहीं समझता । 6 दशकों से लगातार हो रहे उत्पीड़न को गीतकार कैफी की ही रचना से समाप्त करता हूं …. ये दुनिया , ये महफिल मेरे काम की नहीं ….।
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